रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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... भैरों-मुहल्लेवाले समझते थे, मुझे गवाह ही न मिलेंगे। एक-सब गीदड़ हैं, गीदड़। भैरों-चलो, जरा सबों के मुँह में कालिख लगा आएँ। सब-के-सब चिल्ला उठे-हाँ, हाँ, नाच होता चले। एक क्षण ...

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